मैं नेकी की राह पे, चलता चला गया।
मुकद्दर की स्याही, मलता चला गया।
मैने जिन्दगी से कभी, कुछ नहीं मांगा,
जो मिला, मैं उसमें, ढलता चला गया।
मेरे खातिर क्यूं यहां, कोई भला बदले,
सबके लिये मैं ही, बदलता चला गया।
आइने पर मैनें, भरोसा क्या कर लिया,
मेरा अक्स मुझे ही, छलता चला गया।
इस तरह निकला, दिल का मेरे गुबार,
दूर तक खुद को, कुचलता चला गया।
खुद ही मैं अपनी, सांसो की तपिश से,
मोम की माफिक, पिघलता चला गया ।
-