जो मुझे अपनी ऐहमियत का एहसास दिलाता है,
मेरी बेरुखी मे भी,मुझे बड़े प्यार से निहारता है।
जुदाई में भी,हर पल-हर लम्हा मेरा इंतज़ार करता है,
मै उसे फ़िर याद करूगीं,मुझपर ये ऐतबार करता है।
जिसे हर ठन्ड में मै भूल जाती हूँ,
बसन्त से ग्रिष्म का रुख होते ही उसे फ़िर अपनाती हूँ।
वो "पंखा" ही तो है,जो अपने प्रति मेरे स्वार्थी प्रेम को बखुबी पहचानता है,
पर फ़िर भी ज़रुरत होने पर,अपनी अनन्त प्रीत,हरबार निःस्वार्थ होकर हवा के सहारे मुझपर बरसाता है।
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