किससे भागते फिरते हो तुम, अपने अंदर के भगवान का क्या?
दुनिया से लाख झूठ बोल लोगे तुम, पर अपने ईमान का क्या?
अगर कोई और कुछ नहीं भी देखता है तो क्या हुआ मेरे दोस्त।
तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हारे ज़मीर और तुम्हारे गिरेबान का क्या?
बाहर की बहारों को नोच खाया तुमने बेखौफ़ होकर के मुर्शद।
कुछ सालों के बाद जो खिलेगी उस कमसिन बागबान का क्या?
वो कहते हैं कि एक मयान में दो तलवार नहीं रह सकते हैं।
पर एक आत्मा के दो हिस्से वाले जिस्म रूपी मयान का क्या?
मरोड़ कर नेस्ता नाबूत तो कर दिया तुमने उस पौधे को।
पर सोचो उससे जो मिल सकत था उस सागवान का क्या?
लोग अक्सर पूछते रहते हैं कि तन्हा क्यूँ रहता हूँ मैं आजकल।
उन्हें कोई बताए दोस्त अपने साथ रखते हैं उस कृपाण का क्या?
सारा जीवन सबकी मेजबानी करते हुए बीत गया मेरा यूँही।
उसके घर जाकर जिसकी बेइज्जती हुई उस मेहमान का क्या?
जब ख़ुद पर आती हैं तो कहते हो कि हमारे में दहेज नहीं देते।
जो तुम्हारे घर आएगी सब छोड़ उस कन्या के कन्यादान का क्या?
तुमसे कोई ऊँची आवाज़ में बात करें तो आग बबूला हो जाते हो।
उसको जो अपशब्द कहे है तुमने उसके आत्मसम्मान का क्या?
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