संभलकर चल के राह-ए-मुहब्बत आसां नहीं ऐ दिल!
यहां लिए हर सांस को भी किस्त-ए-वफ़ा चुकाना पड़ता है।
मिलती नहीं रिहाई इसकी क़ैद से किसी 'अहेऱ' को कभी,
ताउम्र गिरफ़्त-ए-दर्द में ही 'हय़ात' बिताना पड़ता है।
कभी रूठ जाता है साकी तो कभी लकीरें नहीं मिल पातीं,
हर दफ़ा राह-ए-उल्फ़त में आब़-ए-चश़्म सजाना पड़ता है।
कोई दवा क्या?दुआ क्या?सब बेअस़र हैं इस मर्ज़ में,
इसका ज़ख्म ले सीने पर होंठों से मुस्कुराना पड़ता है।
एक अन्धकूप सा है इसकी गलियों तक पहुंचने का रास्ता,
एकबार जो उधर चले गएं तो वहीं का होकर रह जाना पड़ता है।
मत पूछ आलम मुझसे इश़्क-ए-बेनज़ीर के फरेब़ का ऐ रहगुजर!
कि इसकेे झांसे में आकर कितनों को अपना सुख-चैन गंवाना पड़ता है।
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