जबसे नज़रों में मेरी वो एक शाहकार हुआ,
सामने उसके तो फीका हर एक मेयार हुआ,
यकीं करके मैंने खुद पे बड़ा ज़ुल्म किया,
जो तलब गलत थी उसी तलब का तलबगार हुआ।
मेरा दिल जिसकी तब्बसुम से गुलज़ार हुआ,
वक़्त-ए-कुर्बत में भी उसपे ना इख़्तियार हुआ,
वक़्त क्या बदला वो वक़्त से ज़्यादा बदला,
ग़मज़दा मैं हुआ वो रकीबों पे जाँनिसार हुआ।
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