वो मुझमें हो कर भी मेरा नहीं, ये दिल समझ क्यों नहीं जाता,
तन्हाई में चाँद को देख मानिंदे-तिफ़्ल, बहल क्यों नहीं जाता।
जानते हैं सब इश्क के हालात अच्छे नहीं रहे किसी भी दौर में,
सुन किस्से हीर-राँझा के, हर आशिक़ संभल क्यों नहीं जाता।
लौट आते हैं घरौंदे में पंछी, थककर दिनभर की उड़ान के बाद,
फिर मेरे दिल का परिंदा टूट कर भी अपने घर क्यों नहीं जाता।
जो शुरू हुआ है किस्सा, तो कभी पामाल भी होगा इंशा है ये,
मियाज़-ए-जीस्त से कुछ दास्तानों का बसर क्यों नहीं जाता।
जो तोड़ गया है शीशे-सा, उसको भी दुआओं से नवाज रहा है,
पत्थर के मेरे दिल से नफ़ासते-मोम का असर क्यों नहीं जाता।
बदल लेते हैं रंग खरबूजे भी गिरगिट को देख कर इस जमाने में,
अंदाज़-ए-"आरसी" तू भी मौसम के साथ बदल क्यों नहीं जाता।
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