अगर कोई पूछे मुझसे मेरा मज़हब,
तो मैं अपनी नज़्म सुना देती हूं
अल्फ़ाज़ ही है मेरा खुदा,
उनको ही सजदे में मैं पढ़ देती हूं
है कई रंग इस बाज़ार में,
मैं सियाही को अपना धर्म बता देती हूं
सुनी ना किसीने जो फरियाद,
वो मन्नत काग़ज़ों पे उतार देती हूं
चढ़ा कर चादर चन लफ्ज़ों की,
अपनी दुआओं को पाक बना देती हूं
ना मंज़ूर हुई मेरी ख्वाहिशें तो क्या,
अपनी आरजू का काग़ज़ों पे मंदिर बना देती हूं
©Devika parekh
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