इन आँखों में तुम्हें जो नज़र आता हैं अश्कों का समन्दर,
कभी कभार कोई उमड़ पड़ता तूफ़ानसा सैलाब या बवंडर..
इसमें दुनिया तुम्हारी, डूबाने नहीं, यह तो हो गया तुम्हारा भरम..
इसमें समायी हैं अनगिनत यादें तुम्हारी, और बेपनाह इश्क़ सनम..
इक बूंद जैसे अश्क़ छलक पड़ता, जब थोड़ी पलक झपक जाती,
वह तो मानो तुम्हारी, कोई सताती याद ही जब याद आ जाती..
इश्क़-ओ-अश्क़ के समन्दर में लगाया हल्का गोता हैं जानम..
इतने लगाना गोते कि समेट लेना बाहों में अपनी सारा ही समन्दर.
इसी इंतज़ार में तक रहा राह तुम्हारी ए "नीर" कब होंगे तुम्हारे करम..
ऐ सनम मेरे, ओ मेरी जानम.. हैं वही इश्क़-ओ-अश्क़ का समन्दर..
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