Sk Altafuddin   (Altaf)
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Joined 23 May 2017


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Joined 23 May 2017
11 NOV 2019 AT 1:14

जिस रास्ते पे चलकर पहुंचेंगे हम अमन को
उस रास्ते पे लेकर चलना है अब वतन को
मंदिर ओ मस्जिदों की यह जंग आखरी हो
महफूज़ राम लल्ला, महफूज़ बाबरी हो
क्या होगया अगर ना मस्ज़िद हो उस ज़मीं पे
वो कौन सी जगह है अल्लाह जहाँ नही है
हो ख़त्म मामला यह जो बीच में खड़ा है
टकराव मज़हबों का मंजूर अब नही है
मुश्किल है जानता हूँ अहल-ए-ज़ख़म का भरना
दिल में जो नफ़रतें थी उसको दफ़न है करना
हक़ में ना कौम के हो, हक़ में यह मुल्क ही है
अमन-ए-वतन किसी भी सुन्नत से कम नही है
दो ग़ज़ ज़मीं की ख़ातिर काफी लहू बहा है
दोनों मज़हब के लाखो लोगों का घर जला है
है एक ही गुज़ारिश कानून-ए-सल्तनत से
मुज़रिम को दो सज़ाए आज़ाद है वो कब से
थोड़ी सी है शिकायत ना कोई और गिला है
करता हूँ मैं कबूल, यह जो भी फैसला है

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8 SEP 2019 AT 22:40

डूबने वाले ने कहा,
"मुझे तैरना नही आता"

मैं तैरने वाला हूँ,
मुझे डूबना नही आता

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15 MAY 2019 AT 9:34

(Read in caption)

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19 APR 2019 AT 11:23

एक हार से भला तुम क्यों शर्मिंदा हो
ख़ुद को दफन कर लो और फिर ज़िंदा हो

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1 APR 2019 AT 23:22

कुछ हिस्सा भेज दीजिए, कुछ हिस्सा रह जाए
इस तरह से आप, हर जगह रह जाए

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28 MAR 2019 AT 12:25

लुटेरों के लूटने की आदत नही बदली
बस बदले है हुक्मरां, मुल्क़ की हालत नही बदली।

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15 MAR 2019 AT 1:17

बहुत कुछ छोड़ आता हूँ किसी का दिल दुखाता हूँ
मैं सपनों के तरफ जब भी कदम अपने बढ़ाता हूँ
निकल पड़ता हूँ बेपरवाह मैं ख़ुदको ढूंढने ख़ातिर
है ज़िम्मेदारियां घर की मैं अक्सर भूल जाता हूँ
सफ़र लंबा बहुत होगा मुझे मालूम था लेकिन
कदम दो चार चलते ही मैं अक्सर टूट जाता हूँ
मेरे घर में सजा रखा किसी ने आईना ऐसा
मैं जब नज़रे मिलाता हूँ, शर्म से डूब जाता हूँ
नही करते है वो शिकवे, नही शिकायते हमसे
मैं खुद इल्ज़ाम देता हूँ, सज़ा मैं खुद सुनाता हूँ
तुम्हे आसान लगता है, यह शेर-ओ-सोहरते मेरी
नही तुम जानते हो कितनी मैं क़ीमत चुकाता हूँ

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10 MAR 2019 AT 1:35

हिन्दू मुस्लिम दोनो मज़हब, दूर रहो सियासत से
रोटी सेंक रही सियासत तुम दोनों की नफरत से

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4 MAR 2019 AT 8:59

वो अक्सर पूछती है
मिलते नही हम तुमको फिर बोलो क्या होता?
किसके दिल में रहते तुम, कौन तुम्हारा होता?

यह सवाल ज़रा मुश्किल सा लगता है
तुम हो तभी तो महफ़िल सा लगता है
तुम बिन यह लम्हे इतने ख़ास न होते
ख़ुदा से शिकायत होती अगर तुम पास न होते
मुकम्मल मेरे ग़ज़ल के अल्फ़ाज़ न होते
हम राज़ ही रह जाते अगर तुम हमराज़ न होते
तेरे साथ होने से मेरी इबादत हो जाती है
हर एक मुलाकात में मोहब्बत हो जाती है
वकालत तुम्हारी, फ़ैसला तुम्हारा, गवाह भी तुम हो
मेरे हर एक दिल-ए-मर्ज़ की दवा भी तुम हो
देखते देखते ही एक साल गुज़र गया है
जो खाली हिस्सा था मुझमें, तेरे आने से भर गया है
तुम बिन जीने की सोंच के भी डर जाते है
तुम्हारे न होने के सवाल से हम अक्सर मुकर जाते है
पर आज कहता हूँ के
तेरे बिन न कोई और इस दिल को गवारा होता
न हम किसी के होते, न कोई और हमारा होता

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3 MAR 2019 AT 20:58

बड़ा लापरवाह यह तेरा इश्क़ है अल्ताफ़
उसी को रुला बैठा जिसे मनाने आया था

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