कभी चेत के कबूतरों सी
शांत है कविता
कभी गोदौलिया का
शोर है कविता
कभी आसमान की आँखें बन
पतंगों में नजर आती है
कभी लंका से अस्सी होते हुए
घाटों से गुजरती जाती है
कभी गलियों में रहती है
बंगाली टोला से ठठहरी तक
कभी किसी नवजात का
कृत्य है कविता
कभी मणिकर्णिका का
अंतिम सत्य है कविता
एक कविता है मेरे अंदर
जो बनारस सी दिखती है
जिसे मैं लिख नहीं पाता
पर हर रोज जीता हूँ
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