धधक धधक नफ़रत की ज्वाला भड़की
मार मार के अपनों के लाश गिराएंगे
फिर धर्म धर्म के कौए आएंगे,
लाशें नोच नोच के खाएंगे।
दो आंखें सच्ची थीं सच देखी थी,
...फिर खोफजदा थीं लुच्ची थीं!
अब तो मान अपमान पे सब मौन यहां,
शहर में है अब किसका कौन यहां...
राम अंश हैं कृष्ण बंश हैं..!
पर चित चीरहरण पे शर्मसार नहीं,
वो कोदंड का टंकार नहीं,
निडर निर्भीक सुदर्शन की ललकार नहीं..
फिर तो वहीं कौए आएंगे,
मोर बन सुंदर नाच दिखाएंगे,
धर्म धर्म चिलाएंगे ,
हमारी लाशों को नोच नोच खा जाएंगे!!
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