Prateek Yadav   (Prateek Yadav सहर)
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ना खुदा ही मिला।
ना विसाल-ए-सनम।
ना इधर के रहे।
ना उधर के रहे।
Joined 27 January 2018


ना खुदा ही मिला।
ना विसाल-ए-सनम।
ना इधर के रहे।
ना उधर के रहे।
Joined 27 January 2018
28 JUL 2021 AT 16:11

डूबते दरिया में ख्वाबों का एक किनारा मेरा दिल।
बन्दिशों का मारा बेबस और बेचारा मेरा दिल।

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30 MAY 2021 AT 13:43

नपे नपे से रास्ते नपे हुए हैं आसमान।
जहाँ सफ़र वीरान हो उसी फ़िराक़ में तू चल।

ये सुकून भर का रास्ता कहीं न लेके जाएगा।
काँटे पड़े मिले जहाँ कुछ ऐसी राह पे तू चल।

परों की चाह में एक उम्र कैद में गुज़ार दी।
तू मुतमईन हो जहाँ उस आसमान को तू चल।

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10 MAR 2021 AT 14:55

सभी को था गुमान कि लौटेंगे हम मगर।
घर उजड़ गया तो घर से वाबस्तगी कैसी।

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23 FEB 2021 AT 9:55

तेरा पास आना यूँ मुझको सताना।
सताकर मनाना क़यामत क़यामत।

वो आँखों का सुरमा वो चेहरे की लाली।
वो नज़रों के घेरे क़यामत क़यामत।

वो ज़ुल्फ़ की घटाएँ पलक तक जब आयें।
वो उनको हटाना क़यामत क़यामत।

वो होठों पे तेरे जो ठहरे तबस्सुम।
वो तेरा मुस्कुराना क़यामत क़यामत।

वो लहरा के तेरा दबे पाँव चलना।
वो शर्माना तेरा क़यामत क़यामत।

वो तसव्वुर के रस्ते तेरा मुझ तक आना।
वो मुझको सताना क़यामत क़यामत।

यूँ शर्मा के तेरा वो पलकें उठाना।
उठाकर गिराना क़यामत क़यामत।

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19 FEB 2021 AT 19:47

रातों में बिखरे हुए वस्ल के वीराने देखे।
क्या कहें हमने कैसे कैसे ज़माने देखे।

कसमों की रवायत एक पल में तोड़ दी जिसने।
रूठ जाने के हमने ऐसे भी बहाने देखे।

वाबस्तगी एक उम्र अंधेरों से रही रात दिन।
लोगों को कहते रोशनी के अजब फ़साने देखे।

कहानी उम्र दर उम्र यहाँ बदलती रही 'सहर'।
आज़माते क़िस्मत हमने लोग वही पुराने देखे।

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25 JAN 2021 AT 12:27

मैं हवाओं से लड़कर चराग़ जला भी दूँ स्याह रात में।
मगर तेरे बुझाये वो रोशनदान सवेरा होने नहीं देते।

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20 JAN 2021 AT 12:14

दिन को शबिस्तान में अक्सर सोता है कौन।
ख़्वाबों के तलबगार तो रात ताकते हैं।

तेरी बस्ती से गुजरे हैं सो ठहर जाते हैं।
हम ऐसे गुनहगार तेरा साथ ताकते हैं।

पर्दा नशीं ही इल्म रखते हैं चेहरों का।
लफ़्ज़ों के सुख़नवर तो फ़िराक़ ताकते हैं।

वो जो मिल नहीं पाया उसका गिला क्या करना।
जो सादा-दिल हैं कहाँ दौलत-ए-जहान ताकते हैं।

मुक़द्दर में सफर है तो सो जाते हैं 'सहर'।
मंज़िल के तलबगार ही अक्सर राह ताकते हैं।

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29 DEC 2020 AT 10:01

ये कैफ़ियत असरार कुछ दास्तान सुनाने आये हैं।
बरसों से सोया था जो मैं, मुझको जगाने आये हैं।

ये रुतबा, रब्त और दौलतें कुछ भी ना काम आएगा।
वो मंज़िलों से लौटकर मुझको ये बताने आये हैं।

जो सम्त मेरी चल पड़ो तो मुड़कर फ़िर ना देखना।
हम मौसम-ए-इकरार को इतना बता के आये हैं।

इन ज़लज़लों के बाद बहारें और भी होंगी 'सहर'।
उजड़े उस गुलिस्तान को हम ये बताने आये हैं।

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24 NOV 2020 AT 10:51

ब-दस्तूर राह में मिले हो मिजाज़ पूछते हो।
मुखातिब हो हमसे तुम ये क्या पूछते हो।

ये दौरानियाँ वस्ल का टूट जाएगा।
तसव्वुर उम्र भर की क्या पूछते हो।

तेरे जाने से टूटे कई मरासिम।
कितना टूटे हम क्या पूछते हो।

उल्फत में यूँ तो लगे कई हर्फ़ हमपे।
फ़ना कैसे हुए ये क्या पूछते हो।

खंडर किले हुए अपनों से जंग में।
ज़ख्म कितने गहरे थे क्या पूछते हो।

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3 NOV 2020 AT 13:51

बादलों से झाँकता चाँद।
रोशनी रास्ते पे डालता है।
देखता है किसी मुसाफ़िर को।
पेड़ रास्ता ताकते हैं।
किसी के आने के इंतज़ार में।
टहनियां टूटकर गिर जाती हैं।
हवाएँ सर्द होने लगी हैं।
कोई मुसाफ़िर आने वाला है।
पत्तियाँ राह को ढक देती हैं।
इस उम्मीद में की कोई रुक जाए।
वो सर्द रात में टिमटिमाता हुआ लैंप पोस्ट।
हल्की रोशनी करता है और बुझ जाता है।
मानो किसी को आवाज़ दे रहा हो।
वो बेन्च जो सदियों से खाली पड़ी है।
ताक उठती है किसी को आता देख।
वो पंछी अब चहचहाते नहीं हैं।
वो पार्क अब सूना पड़ा है।
वो रास्ता जिसपर बच्चे खेला करते थे।
अब वीरान है।

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