पिछले पाँच दिनों में शरीर का तापमान 103° के करीब पहुँच चुका था। घर से दूर रहते हुए 4 साल हो गए हैं लेकिन घर से दूर होने का इतना गहरा एहसास आज से पहले शायद ही कभी हुआ हो। आज पहली बार अनुभव कर रही हूँ कि दिल्ली सच में कितनी दूर है।
कमरे का सारा सामान अस्तव्यस्त है। स्टडी टेबल पर किताबों से ज्यादा दवाईयों के लिफ़ाफ़े पड़े हैं। फ़र्श पर दवाईयों के खाली रैपर, सिरप की खाली शीशी, दो-चार जूठे बर्तन, गर्म पानी की बोतल..सब के सब अव्यवस्थित रूप से बिखरे हैं। आख़िरी बार जिस किताब को पलटकर जिस तरह रखा गया था, जिन पेन और हाईलाइटर्स को इस्तेमाल करने के बाद भूलवश ढक्कन खुला छोड़ दिया गया था उसी तरह अपने स्थान पर पड़े हैं।
सुबह होती है, बिस्तर की गर्माहट को छूकर पता चलता है कि आज भी कोई सुधार नहीं हुआ। काँपती हुई आत्मा बेजान शरीर को जबरन उठाती है और बाथरूम के दरवाज़े से भीतर धकेल देती है। पानी के प्रत्येक स्पर्श से मानो देह छलनी हुआ जाता है।
"कैसी हो तुम? अभी ठीक हो न?"
बेहोश शरीर से आवाज़ निकलती है,"हाँ-हाँ, ठीक हूँ।"
सन्नाटा..!
बच्चों के खेलने की आवाज़ें कर्कश लग रहीं हैं। एलेक्सा के गाने कानों को लगातार चुभ रहे हैं। आँखें बंद, देह सुन्न, दिमाग कहीं दूर किसी छोर पर..
"सुनो, ये लो अदरक वाली चाय लायी हूँ। सारी पी लेना, फेंकना मत। चीनी कम लगे तो डाल लेना।"
आँखें टेबल पर रखी चाय को एकटक देखतीं हैं।
सन्नाटा..!
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