तुम धुएं की तरह हवा में ओझल हो गऐ, मैंने तुम्हें पकड़ना चाहा, मगर तुम नही रूके। अब तुम्हारा लौट कर ना आना, जीवन का एक हिस्सा बन गया है, मगर एक भारीपन, यही कही भीतर मन को थका देता हैं, संवादों में यूँही कभी, तुम्हारा जिक्र मुझे अब मौन कर जाता हैं। आंखे अब तुम्हें क्षितिज के अंत तक, नही टटोलती, महज कभी कभार, इंतजार का अंतहीन सागर , मुझे आज भी बहा ले जाता हैं।
कभी-कभी नहीं समझ आता, कि किसी के दुख को कैसे बांटा जा सकता है? कभी-कभी हमारे हिस्से केवल प्रतीक्षा आती हैं, मौन खड़े, उस दुख के बीत जाने की,कम हो जाने की....