दिसम्बर जाने की कगार पर,
मैं इस साल की यादें भूल जाने की कगार पर,
कंपकंपी वाली ठंड रातें,
शाल लपेटकर कमरे में बैठा मैं,
रात को हवा की सांय-सांय,
जैसे कुछ कहना चाहते हो सन्नाटे,
घर की दीवारें अब तुम्हें पूछने लगी है,
वो दीवार घड़ी रोज़ इसी समय रुकने लगी है,
बिस्तर पर अब सिलवटें नही है,
करने को बात है, सुनने को कोई नही है,
नुक्कड़ पर चाय पीने अब नही जाता,
अब कैलेंडर में छुट्टी का कोई दिन नही आता,
सोचा था इस बार घुमने बाहर जाऊंगा,
ए फुरस्त, मैं तुझे कब याद आऊँगा,
रात को जाम भी अब लड़ते नही है,
वही खड़े है, तुझसे आगे बढ़ते नही है,
क्यों अवाक से खड़े यहाँ सब मौन है,
अपने भी पूछने लगे है, "आप कौन है"
मेरे घर के रोशनदान से ताकती हो तुम,
हँसना चाहता हूँ, पर हँसी कहाँ है गुम,
काम में ही ये उमर गुज़र जा रही है,
बेबसी, तुझको मेरी हालत पर मौज आ रही है,
बहुत हुआ अब, ये तिलिस्म मैं तोड़ने जा रहा हूँ,
अंधेरों को चीरकर उजाला लेकर बाहर आ रहा हूँ...
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