काफ़िर शिव   (काफ़िर शिव)
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I like to Collab randomly...
Don't take life seriously
Joined 31 December 2020


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11 NOV 2022 AT 19:24

शून्य से निकले हैं, शून्य में ही जाके मिल जाना है,
ख़्वाब ये शब भर का, नींद खुलते ही टूट जाना है ।

है शून्यता से भरा हुआ अनंत इस जहां के आगे,
ये दुनियादारी रिश्तेदारी सबकुछ यहीं छूट जाना है।

समझता है ना जाने क्या बसर ख़ुद को ब्रह्मांड में,
सिर्फ़ बुलबुला है पानी का, एक दिन फ़ूट जाना है।

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25 SEP 2022 AT 21:38

शून्य से निकले हैं, शून्य में ही मिलना है,
ख्वाब ये शब का, नींद खुलते ही टूटना है।

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22 SEP 2022 AT 11:11

इससे पहले कि जिंदगी की बेकारगी मार दे,
उठे कोई तमन्ना फ़िर, फ़िर एक नया कार दे।

बदहवासी ने ही बदहवासी को मार दिया है,
भूल जाऊँ सब कुछ, एक जाम साकी यार दे।

कार है कारण परिवर्तन का, नियम है सृष्टि का,
बे-कार को कैसी तमन्ना, कैसे वो नया कार दे।

ना मोहब्बत का काम है, ना काम से मोहब्बत है,
चार दिन के सबब में और कितनी साल गुजार दें।

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16 SEP 2022 AT 22:19

सिर्फ़ ख़ुद की परवाह की परवाह है,
कैसे कहें की हम दूसरों के लिये ज़िन्दा हैं।

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30 AUG 2022 AT 3:14

लोगों की नज़र में आने से डरते हो, दिख जाने से डरते हो,
या देख कर किसी और को हो ना जाओ बेखुद ख़ुद ही,
क्या इसीलिए तुम रोशनी में आने से खौफ़ करते हो?

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23 AUG 2022 AT 18:43

गुलज़ार साहब का कहना, दिल जिस राह मुड़े मुड़ जाना था,
दिल जैसे धड़के धड़कने दो, जावेद जी को भी यही बताना था,
मान ना बातें इनकी, फ़िर कैसी टोका टाकी, क्यूँ रुकना रुकाना था,
बही जो लहर, साथ बह जाना था, थोड़ा तो तमन्ना के बहकावे में आना था,
रुका है एक सफ़र जो, तो शुरू करना फ़िर एक नया सफ़रनामा था,
या था आनंद जहां, फ़िर वहीं लौट जाना था...
करना याद फ़िर बयान-ए-फ़िराक़,
बहुत पहले से उन कदमों की आहट को जानना था,
ज़िंदगी को दूर से पहचानना था....

हुयी गलती तो क्या, इस ग़लती का करना मुताला था,
जो पढ़ा नहीं किसी बाब-ए-किताब में, वो सबक अब समझ जाना था...
दूर से नहीं समझे जो आहट को, अब जो खाई ठोकर तो संभल जाना था...

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22 AUG 2022 AT 23:58

कफ़स

जाकर बैठ जाता है घर के बाहर पेड़ की डाली पर,
अक़्सर ये परिंदा उसे सोचा करता है,
सोचता है गिरा दे दाना क्या उस के कमरे में एक,
जो बताये उसे की ये उस कफ़स को कितना याद करता है,
इस सोच में ही बैठा रहता है और सोचता है
जो खोल कफ़स कर दिया आज़ाद तो क्या उसे बताना,
क्या दाना उसके कमरे में गिराना, क्या उसे याद दिलाना,
रुदाद-ए-चमन का हाल तो कफ़स में रहते वक़्त पता था,
है बाहर अब जो इस चमन में, गिर पड़ी है जो बिजली,
ये किस्सा अब क्यूँ उसे सुनाना था,
बीत जाता है वक़्त बहुत ये सब सोचते सोचते परिंदे को,
फ़िर घर भी लौट जाना होता है, सोता कहाँ है चैन की नींद,
सुबह फ़िर देर हो जाती है, चले जाते हैं सब दाना लेने अपना अपना,
ये परिंदा पशेमानी से उलझता फिर नया दिन गुजारता है,
बैठ जाता है शाम को फ़िर उसी डाल पर जाकर जहां से
वो कमरा और उस कमरे में रखा वो कफ़स नज़र आता है...

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2 AUG 2022 AT 13:31

ज़िंदगी में हमारी बड़ी दुश्वारी सी है,
ज़िंदगी में हमारी बड़ी खुद्दारी सी है।

तल्ख़-ए-जुबाँ है, जानते हैं काफ़िर,
लफ़्ज़ों में ज़रा कम होशियारी सी है।

नीरस हैं ख़्याल, बातें भी उदासीन,
ज़हन में कम-ओ-बेश बेनियाज़ी सी है।

उठ के चल दिये हैं फ़िर से मुक़ाम से,
अब किस नये सफ़र की तैयारी सी है।

चल सको साथ तो चलो पर समझ लो,
काफ़िर के जीवन बहुत सी मेयारी सी है।

समझो इंतेहां होने पर इम्तेहान होंगे,
स्वीकारी तुमने शिव की मेयारी भी हैं ।

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1 AUG 2022 AT 22:28

कभी हुस्न की बाहों में आके सो जाया करो,
कभी ख़्वाब की राहों में आके सो जाया करो,
होती है कितनी शीतल, तारों भरी रात ये,
तुम दिल से उठती इन आहों को छोड़कर,
कभी दिल की चाहों में आके सो जाया करो।

बुलाती है जो ये रात तुमको मयख़ाने,
झिझकते क्यूँ हो इतना, चले जाया करो,
नशा है तो जिंदगी है, जिंदा रहोगे तुम,
देखना क्या छलकते ज़ाम, पी जाया करो, 
कभी दिल की चाहों में आके सो जाया करो।

होंगे रिंद सभी, हमसुखन भी, हम जुबां भी,
अजनबी चेहरे पहने, जानीमानी दास्तां सभी,
होगी तल्ख-ए-ताबीर-ओ-तसव्वुर-ए-ख़्वाब सभी की,
थोड़ी उनकी सुना करो, कुछ असार तुम सुनाया करो,
कभी दिल की चाहों में आके सो जाया करो।

इस रात के उस पार भी ना कोई ख़ज़ाना मिलेगा,
फ़िर वही दिन का दरिया, और एक किनारा मिलेगा,
आके किनारे तक फ़िर लौट जाना, महज़ यही जीवन है,
पर जब आओ किनारे, वक़्त की रेत पे निशाँ छोड़ जाया करो,
कभी दिल की चाहों में आके सो जाया करो।

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30 JUL 2022 AT 22:12

दुनिया से अनजानी,
जावेदा सी कहानी,
ख़त्म है ज़िन्दगानी, 
औराक-ए-परेशानी...

जो थी कभी दीवानी,
सबसे ही निहाँनी,
जावेदा सी कहानी,
औराक-ए-परेशानी....

ये बात नहीं पुरानी,
दिखती है निशानी,
कहे कैसे बेज़बानी,
औराक-ए-परेशानी....

ना रही महरबानी,
मर्ग़ सी ना ग़हानी,
करे हमेसा ही फ़ानी,
औराक-ए-परेशानी...

नक्द-ए-ज़िन्दगानी,
हो मुनाफ़ा या अर्ज़ानी,
कम ना होती परेशानी,
औराक-ए-परेशानी.....

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