खुश तो है इंसान लेकिन खुश नहीं भी...
लड़ तो रहा है इंसान लेकिन कहीं है हार भी....
कुछ आगे आके मदद कर रहे तो कुछ कर रहे क़त्ल भी...
फिर भी चल रही है ज़िंदगी लेकिन साथ में दुख भी...।
लिखे हुए शब्द की एक एक बारीकी को समझाता हूँ....
शायद समझ आ जाए तुम्हें इसलिए लिख जाता हूँ....
कुछ समय रह गया फिर हमने चले जाना है...
शायद ही उसके बाद हमने नज़र आना है...
कहता है यह फ़तेह सच ...
इसलिए तो आज भी यह हर जगह मार खाता है....
किया शायद मैंने क़त्ल किसी के जस्बात का, इसलिए बार बार इंसान मेरे साथ खेल जाता है...
आज भी सहमा सा रहता हूँ मैं पर ना जाने मेरा कलम क्या लिख जाता है....
मत बन्ना मेरे जैसा मुझमें वो बात नहीं...
किसी की मदद क्या करूँगा मैं,जब भगवान भी मेरे साथ नही....
फिर भी किया कुछ प्रयास अपनी तरफ़ से ...
लेकिन इस कल्यूग में इंसान को वो भी पसंद नहीं....
कभी कभी दिल करता मैं लिखना छोड़ दूँ...
पर फिर आता मेरे यार का मेसिज, कहता भाई मै शायद ज़िन्दगी में तेरे जैसे लिख लूँ....
बढ़ते बढ़ते एक दिन सबने दूर हो जाना हैं...
उसके बाद शायद ही किसी ने एक दूजे को पेचान ना है...
फिर भी बन्ने रहते है कुछ रिश्ते...
उनको तो मैंने भगवान का ही आशीर्वाद मना है..
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